Special story : बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह का संघर्ष भरा रहा जीवन
बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह का संघर्ष भरा रहा जीवन
पुण्य तिथि पर राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर की विशेष रिपोर्ट...!
नवादा लाइव नेटवर्क।
देश गुलाम था। अंधविश्वासों में जकड़ा था। जातीय और धार्मिक क्षेत्रों में भेदभाव और छुआछूत की स्थिति थी। खेती कमजोर स्थिति में थी गाँव के जीवन पर जमीन्दार एवं महाजनों का दबदबा था। उस काल-खण्ड की सही तस्वीर मुंशी प्रेमचन्द और रामवृक्ष बेनीपुरी के साहित्य में उपलब्ध है। शिक्षा सीमित लोगों के बीच सीमित थी। अंग्रेजों की शिक्षा-प्रणाली तो बिना भात की खाली थाली मानी जा रही थी। प्रदेश के रजवाड़े और जमीन्दार पढ़े-लिखे होते थे, लेकिन वे अंग्रेजों की जय बोलकर उपाधि पाते थे। शिक्षित नौकरी करने वाला भी आर्थिक लोग के कारण भ्रम पैदा करता था कि जिस राज में सूर्य नहीं डूबता है, उसे कौन भगा सकता है ? कहते हैं कि धरती जब कई ढंग के शोषण-दोहन एवं गुलामी के चक्कर में अक्रांत होती है, जब अंधकार का कुहासा फाड़कर, गुलामी के बंधन तोड़कर, डॉ. श्रीकृष्ण सिंह जैसे कर्मयोगी का अवतरण होता है।
प्राचीन मगध के राजनगर गिरिव्रज पर्वत के पूर्वी हिस्से में, जिसके संबंध में प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन सांग ने सातवीं शताब्दी में लिखा कि इस पूर्वी भू-भाग जो शस्यों से भरा है, सुस्वाद चावल पैदा होता है। उसी भू-भाग का वर्तमान में शोखपुरा जिले के बरबीघा प्रखण्ड के माउर गाँव में कृष्ण भक्त श्री हरिहर सिंह, जो शिक्षा प्रेमी थे और कृष्ण भक्ति के कारण उनके सभी पुत्रों के नाम के साथ कृष्ण किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं ये घर अवतरण हुआ। सचों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। सबसे बड़े पुत्र देवकीनन्दन सिंह इन्टर तक पढ़े थे, लेकिन अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण ज्योतिष के प्रख्यात आचार्य थे। उनकी लिखी पुस्तक 'ज्योतिष रत्नाकर ज्योतिषियों का मार्ग-दर्शन करता है। राम कृष्ण सिंह भी इन्टर तक पढ़े थे। राधेकृष्ण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह और गोपीकृष्ण सिंह ये तीनों भाई एम. ए. थे । इनके पिता हरिहर सिंह बरबीघा के आस-पास के छोटे जमीन्दार थे।
किसी भी व्यक्ति के जीवन में मातृभूमि का स्थान महत्वपूर्ण होता है। बिहार केसरी श्री बाबू का जन्म नवादा जिले के वर्तमान के नरहट प्रखण्ड के खनवां गांव, ननिहाल में 21 अक्टूबर, 1887 में हुआ था। उन दिनों खनवाँ गाँव में गन्ने की खेती खूब होती थी। बालक श्री कृष्ण सिंह के बालपन से जुड़े गन्ने तोड़ने और मामा द्वारा नाराजगी व्यक्त करने की बात फिर आम पर पत्थर फेंकने और गाँव रिश्ते के नाना के द्वारा पकड़कर अपने नाना के पास लाने पर ठीक बालक भगवान कृष्ण की तरह "नानाजी हमने गन्ने नहीं तोड़े, नाना जी हमने आग नहीं झाड़े का दृश्य का बालरूप का दर्शन खनवाँ गाँव के लोगों को हुआ था। वही श्रीकृष्ण सिंह जब बिहार के मुख्यमंत्री हुए तो मुन्ना और आग बगीचे के मालिक नाना किसान को श्री बाबू ने कहा सामू गन्ना है। नहीं, नाना आम फला है या नहीं। तो गाँव के लोग बाग-बाग हो गए आज भी गन्ना तोड़ने और आम झाड़ने की घटना उन्हें याद है। श्री बाबू जन्म स्थान आज भी उपेक्षित है। श्री बाबू के लिए जननी, जन्मभूमि स्वर्ग अधिक प्रिय रही है।
डॉ. श्री कृष्ण सिंह कुशाग्र बुद्धि के थे। तन्मयता के साथ शिक्षा प्राप्त करने लगे। 1906 में मुंगेर जिला स्कूल से प्रथम श्रेणी में इन्ड्रेस परीक्षा पास है। और उसके बाद पटना जाकर उच्च शिक्षा के लिए पटना कॉलेज में प्रविष्ट हुए। 1913 में और 1914 में बी. एल. की डिग्रियों कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राप्त की। श्री बाबू का विद्यार्थी जीवन अत्यन्त उज्ज्वल था। उसी कालखण्ड में नेतृत्व की क्षमता का दर्शन भी होने लग गया था। श्री अरविन्द की क्रांतिकारी रचनाओं का पढ़कर एवं लोकमान्य तिलक और सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के व्याख्यानों ने उन्हें राजनीति में भाग लेने के लिए व्यग्र कर दिया।
उस कालखण्ड में मेधावी छात्रों के बीच सरकारी नौकरी के प्रति ललक हुआ करती थी. लेकिन श्री बाबू स्वतंत्र रहकर कुछ करना चाहते थे। 1915 के आरम्भ में मुंगेर में वकालत शुरू की। कुछ दिनों में अच्छे वकील के रूप में मुंगेर में पहचान हुई। वे मुंगेर से पटना जाकर हाई कोर्ट में वकालत करना चाहते थे, लेकिन ईश्वर की इच्छा कुछ और थी।
श्री बाबू के सामने एक मार्ग क्रांतिकारियों के दर्शन का था और एक मार्ग अहिंसक क्रांति के नायक महात्मा गाँधी का था । देशकाल को देखकर श्री बाबू को गाँधी का रास्ता सही लगा। महात्मा गाँधी द्वारा संचालित 1920 के असहयोग आन्दोलन के पूर्व ही, श्री बाबू ने खड़गपुर के नील की कोठी वाले एक अंग्रेज के विरुद्ध आवाज उठायी थीं।
संघर्ष भरा जीवन
बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और दण्डी संन्यासी स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने 1920 में पटना में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का दर्शन
किया। दर्शन जानना और दर्शन देने वाले का साक्षात् दर्शन करना एक संयोग था। जिसके सामने भारत की आजादी और मानवतावादी समाज की संरचना उद्देश्य बन गयी। इस संदर्भ में बिहार विभूति स्व. अनुग्रह नारायण सिंह ने एक जगह लिखा था-1920 के बाद बिहार का इतिहास श्री बाबू के जीवन का इतिहास है। महात्मा गाँधी द्वारा संचालित असहयोग आन्दोलन को उन्होंने बिहार में गति प्रदान की और 1922 में शाह मुहम्मद जुबैर के निवास स्थल पर गिरफ्तार कर लिए गए और वे पहली बार जेल गए। उसी समय बिहारी नेताओं ने उन्हें बिहार केसरी की उपाधि से विभूषित किया। 1923 में जेल से मुक्त होने के बाद उन्हें अखिल भारतीय कॉंग्रेस कमेटी का सदस्य बुना गया। 1924 में ये मुंगेर जिला परिषद के उपाध्यक्ष पद पर आसीन हुए। शाह मुहम्मद जुबेर के पक्ष में अध्यक्ष बनने से इन्कार कर दिया। श्री बाबू के राजनीतिक जीवन में इस घटना का महत्व है कि ये सबों को लेकर चलने के पक्षपाती थे। 1929 में सोनपुर के हरिहर क्षेत्र मेला के समय बिहार के किसानों के दुर्दशा पर चिंतित नेताओं का जमावड़ा लगा । स्वामी सहजानन्द सरस्वती के मार्ग दर्शन में पटना जिला में किसान सभा संचालित था। बिहार प्रदेश किसान सभा का गठन स्वामी सहजानन्द सरस्वती की अध्यक्षता में हुआ और श्री बाबू को सचिव चुना गया। इसी वर्ष श्री बाबू बिहार प्रदेश कॉंग्रेस कमेटी के सचिव भी चुने गए।
स्वतंत्रता आन्दोलन को गति देने में बिहार के नेताओं में श्री बाबू अगुआ थे। 1930 में बेगूसराय 'गदपुरा में नमक बनाते समय खीलते हुए कड़ाह को अपने दोनों हाथों से पकड़कर उस पर सो जाने से वे बुरी तरह जख्मी हो गए थे। जख्मी हालत में अंग्रेज सैनिकों ने जिस क्रूरता से उन्हें घसीटकर बंदी बनाया, उसे देख बर्बरता भी लज्जित हो गई थी। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के कारण श्री बाबू को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में भेजा गया। इस बीच धर्म पत्नी समरुची देवी प्रायः बीमार रहने लगी और 31 जनवरी, 1944 को वह स्वर्गवास कर गयी। भारत की आजादी को उन्होंने अपना लक्ष्य माना था, उसके प्रति अडिग रहे अंग्रेज सरकार ने शर्त लगाया था कि अगर वे आजादी के लगायी संघर्ष से हट जाएँ तो गिरफ्तार नहीं किया जायगा । लेकिन श्री बाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं किया था।
स्वतंत्रता सेनानी के रूप में श्री बाबू ने सात वर्ष 10 दिन तक जेल यातना सही और कई ढंग से प्रताड़ित भी होते रहे, लेकिन संकल्प के प्रति निष्ठा कभी कमज़ोर नहीं हुई।
बिहार के विकास का नया पथ
बढ़ते जनाक्रोश को देखकर अंग्रेजों की सरकार ने जनप्रतिनिधियों की सरकार का गठन किया। इस ढंग की सरकार में राज्यपाल के पास शक्ति होती थी और जनप्रतिनिधियों का काम सरकार को सलाह देना होता था। माना जाता था कि यह अंतरिम सरकार थी। 1939 में गठित सरकार के श्री बाबू प्रधानमंत्री चुने गए, फिर आजादी के बाद गठित बिहार सरकार के मुख्यमंत्री चुने गए। दोनों कार्यकाल मिलाकर 16 वर्ष 10 माह कार्यरत रहे। श्री बाबू के जीवन का अन्तिम चुनाव वर्ष 1957 में संपन्न हुआ। इस चुनाव में भी उनके कुशल नेतृत्व में कांग्रेस को विजय मिली। इस बार बिहार विधानसभा के नेतृत्व के लिए कांग्रेस दल में संघर्ष हुआ और गिनती दिल्ली में हुई। श्री बाबू विजयी हुए और पुनः मुख्यमंत्री बने। संघर्ष से श्री अनुग्रह नारायण सिंह के प्रति उनकी सद्भावना में कोई कमी नहीं आई। नेतृत्व संघर्ष के बाद जब दोनों मिले, तो राम भरत मिलाप का दृश्य उपस्थित हुआ और श्री बाबू और अनुग्रह बाबू की जोड़ी लगातार बिहार के विकास के लिए तत्पर रही।
श्री बाबू के मन में बिहार के विकास को जो योजना थी. उनके अनुसार उन्होंने बिहार में जापानी खेती का प्रचलन बढ़ाया और हरित क्रांति लाने के लिए कृषकों को काफी उत्साहित किया। उनके कार्यकाल में प्रखण्डों का गढ़न हुआ और सभी प्रखण्डों में कृषि उत्पाद के सामानों की प्रदर्शनी लगती थी और उन्नत प्रभेद के अन्न, फल-फूल, मन्ना एवं सब्जी उत्पादक कृषकों को उपहार प्रदान किया जाता था। इस ढंग के आयोजनों में जनप्रतिनिधि क्षेत्र के युद्धिजीवियों को आमंत्रित किया जाता था। वैज्ञानिक ढंग से खेती करने के लिए प्रशिक्षित कृषि वैज्ञानिकों का दल सक्रिय ढंग से काम करता था। उन्होंने सबौर में कृषि कॉलेज, राँची में कृषि एवं पशुपालन महाविद्यालय, दोली में कृषि महाविद्यालय, पूसा में ईख अनुसंधान संस्थान तथा सिंदरी में भारत का प्रथम खाद कारखाना स्थापित करवाये।
विद्युत की आपूर्ति हेतु दामोदर घाटी तथा पतरातू विद्युत केन्द्र की स्थापना, दक्षिण बिहार और उत्तर बिहार को जोड़ने के लिए हाथीदह में गंगा नदी में पुल एवं बरौनी और डालमीयाँ उद्योग समूह की स्थापना जैसे बुनियादी काम श्री बाबू के शासन काल में हुए थे ।
श्री बाबू की सरकार ने बिहार के आर्थिक विकास और औद्योगिक क्रांति लाने में सक्रिय भूमिका निभायी। बरौनी तेल शोधक कारखाना, राँची में हिन्दुस्तान लिमिटेड का कार्यालय दिल्ली से स्थानान्तरित कर लाया गया तथा बोकारो में बड़ा लौह कारखाना बनकर तैयार हो गया था। बिहार में 29 चीनी मिलें सफलता के साथ चल रही थी और बिहार देश का दूसरा चीनी उत्पादक प्रदेश था। उनके शासनकाल में शिक्षा, सामुदायिक विकास, कृषि, पशुपालन, सहयोग संस्थाएँ, उद्योग, तकनीकी शिक्षा, सिंचाई, बिजली, परिवहन, स्थानीय स्वशासन, कारा, भूमि सुधार, स्वास्थ्य, जलापूर्ति तथा परिवहन और संचार के कार्यक्रम को प्रारंभ किया गया और उनके शासनकाल में काफी प्रगति हुई। बिहार के शौक के रूप में जानी जा रही कोशी नदी की बाढ़ से बचाव के लिए जनसहयोग या श्रमदान से 152 मील लंबा बाद तटबंध करीब-करीब पूरा हो चुका था।
श्री बाबू ने सामाजिक विषमता दूर करने का जोरदार प्रयास किया। प्रायः भाषणों में वे स्पष्ट रूप से बोलते थे "अगर हिन्दुस्तान को आगे बढ़ाना है। तो हरिजनों को ऊपर उठाना होगा। हरिजनों की दीन-हीन स्थिति है। सिद्धान्त पहावड़ा बधारा करो, मगर व्यवहार में यदि हरिजन ब्राह्मण में भेद करोगे तो सब व्यर्थ है। श्री बाबू ने दलितों के मन की मजबूती के लिए 27 सितम्बर, 1953 को अपने नेतृत्व में वैद्यनाथ मंदिर (देवघर) का मुख्य प्रवेश द्वार से आठ सौ हरिजनों के साथ प्रवेश किया। हरिजनों ने शिव की पूजा की यह दलितों के मन की मजबूती के लिए श्री बाबू के द्वारा उठाये गये क्रांतिकारी कदम हैं। इसके साथ हरिजन (दलित) कल्याण के कई महत्वाकांक्षी योजना को भी धरती पर श्री बाबू के नेतृत्व की सरकार ने साकार किया।
जमींदारी प्रथा शोषण पर आधारित व्यवस्था की जातिगत दुर्भावना सामाजिक विकास में बाधक है। छुआछूत की भावना मानव जाति के लिए दुखद अध्याय है। इस अध्याय को समाप्त करने के लिए श्री बाबू ने जो प्रयास किए इससे यह मानना न्यायसंगत है कि श्री बाबू बिहार के लेलिन थे। लेलिन का सोवियत रूस तो बिखर गया लेकिन बिहार मजबूती के साथ आगे बढ़ रहा है। सहिष्णुता के प्रतीक श्री बाबू बिहार की राजनीतिक धुरी थे। इस कारण स्वाभाविक है मौके-मौके पर उनके नेतृत्व के प्रति कुछ लोगों के मन में गुस्सा हो। एक बार पत्र लिखकर और अखबार में स्थान देकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने श्री बाबू पर जातिवाद करने का आरोप लगाया था, लेकिन श्री बाबू ने शालीन ढंग से उनके पत्रों का उत्तर देकर यह स्पष्ट किया कि हम इस आरोप के अंदर नहीं हैं। श्री बाबू निर्भीक पत्रकारिता के पक्षपाती मन, वचन और कर्म से थे। उन दिनों पटना प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक सर्चलाईट के संपादक एम. एस. एम. शर्मा थे। शर्माजी सर्चलाईट के प्रथम पृष्ठ के प्रथम कॉलम में एलोज एंड एपूल्स नाम स्तम्भ लेखन निर्मित किया करते थे। इस स्तम्भ के माध्यम से शर्माजी श्री बाबू के राजनीतिक जीवन के साथ-साथ उनके व्यक्तिगत जीवन पर बहुत ही आपत्तिजनक निम्नस्तरीय व्यंग्य लिखा करते थे। कई शुभचिंतकों ने उनसे कहा सर्चलाइट के खिलाफ कोई कठोर कदम क्यों नहीं उठाते ? वह अकारण आपके विरुद्ध लिखता रहता है। श्री बाबू ने कहा- मैंने सर्चलाईट के विरुद्ध एक अत्यंत कठोर कदम उठाया है। वह कठोर कदम यह है कि मैंने सर्चलाइट पढ़ना छोड़ दिया है। यह उनकी उदारता थी प्रेस के प्रति ।
समाजवादी नेता एवं बिहार के पूर्व मंत्री कपिल देव बाबू उन दिनों बिहार विधान सभा के सदस्य थे। उन दिनों छोड़ा के संबंध में कहीं गड़बड़ी हुई थी। कपिल देव बाबू ने विरोधी नेता के रूप में श्री बाबू पर कई आरोप लगाए । कपिल देव बाबू ने इस संबंध में लेखक से बातों के क्रम में जानकारी दी। भाषण के बाद जब विधान सभा से बाहर निकला, तो श्री बाबू ने पीठ थपथपाई और बोले, बहुत अच्छा भाषण करते हो, लेकिन हृदय पर हाथ रखकर बोलो कि मैं किस कारण दोषी हूँ। यह सुनकर कपिल देव बाबू भावुक हो उठे और आप दोषी नहीं है, मेरी राजनीतिक मजबूरी थी।
पंडित रामानंद तिवारी उन दिनों समाजवादी पार्टी के प्रखर नेता थे। 31 जनवरी, 1961 को पटना के चार देशरत्न मार्ग के सरकारी आवास पर श्री बाबू के देहांत होने के कुछ देर में पंडित रामानंद तिवारी ने श्री बाबू के पकड़ कर जो विलाप किया। यह समझने के लिए काफी है कि विरोधियों के मन पर भी श्री बाबू के छाप थे, यह उनकी सहिष्णुता का उदाहरण है। विद्यानुरागी - पुस्तक प्रेमी
श्री बाबू राष्ट्रभाषा और मातृभाषा के प्रति सजग थे और साहित्यिक आयोजनों में भाग लेकर अभिभूत होते थे। 1955 में अखिल भारतीय हिन्दी शोध मंडल के वार्षिकोत्सव का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा था - भारतवर्ष की भाषाओं में हिन्दी सबसे महत्वपूर्ण भाषा है और इसको राज्यभाषा का दर्जा देकर इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। राष्ट्रभाषा के पद पर इसको आसीन करने के बाद हमारा धर्म होता है कि हम इसको सर्वथा उपयुक्त बनायें।
1956 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के वार्षिकोत्सव समारोह में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, राज्यपाल डॉ. जाकिर हुसैन, राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त एवं हिन्दी के अन्य विद्वानों के समक्ष अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि राजनीति और साहित्य एक दिमाग और दूसरा दिल है। दिमाग किसी को देखता है उसकी छानबीन करता है और जो वह उतना जान पाता है। मगर दिल की आँखें इतनी तेज हैं कि वे यह देख लेती हैं कि वह चीज क्या है और क्या हो सकती है ?" देश के नवनिर्माण में साहित्यकारों की आवश्यकता है, जो मानवतावाद के स्वप्न के साहित्य में चित्रित कर उन घरों में तथा झोपड़ियों में मानवता की नई आशा उमड़ पड़े। श्री बाबू के शासनकाल में साहित्यकार, कवि, लेखक एवं विद्वानों का सम्मान था । आज बिहार में साहित्यकार पूर्ण रूप से उपेक्षित है। साहित्यकारों के लिए विधान परिषद् में जो स्थान रखा गया है, उसमें पता नहीं कैसे-कैसे प्राणी विराजमान हो रहे हैं।
श्री बाबू पुस्तक प्रेमी थे और जिज्ञासा के साथ पुस्तकों का अध्ययन करते थे। उन्होंने मुंगेर सेवा सदन को 42,000 पुस्तकें दान में दी हैं, जिससे हजारों पाठक लाभ उठा रहे हैं। यह कम ही लोग जानते हैं कि डॉ. श्रीकृष्ण सिंह मगही के सफल निबंधकार भी थे। मगही बोलकर सुनकर वे अभिभूत हो जाते थे। उन्हें गर्व था कि मगध की धरती पर भगवान बुद्ध ने ज्ञानार्जन किया। और यह वर्षो तक उनके धर्म प्रचार का केन्द्र रही है। बौद्ध से संबंधित उनके तीन निबंध उपलब्ध हुए हैं -
बौद्ध धर्म के प्रचार जरूरी (मगही सितम्बर, 1956)
मगही भाषा में लिखित, इन निबंधों में भगवान बुद्ध के धर्म, उनके निशु सम, शिष्य धर्म प्रचार का क्षेत्र, जीवन दर्शन आदि का विस्तृत रूप में वर्णन किया गया है। विश्व शांति के लिए बुद्ध के आदर्शों को अपनाने की उन्होंने वरणा दी है। बोद्ध धर्म का प्रचार जरूरी' शीर्षक निबंध उपक्तियाँ निम्नलिखित है
"जब ई सही मानल जा है कि जुगे आदमी के पैदा कर है तो इन्ही मानल गलत नय होत की बड़गो आदमी जुग के पैदा कर हथ। अइसन पुरुष जुग के नया खियाल विचार के खुब गउर से समझे- बुझे के कोशिश कर हय। आउर बात के भी खियाल रख हय की मनुष के ई दुखी जीनगी के अइसन बदल देल जाय कि जेकरा से सब के सब आनंदित हो जाय। भगवान बुद्ध भी एकरा विचार कयलका आउर अप्पन अनुभव से ई जान लेलका को मनुसे है, ज अउर बिना केकरो मदद के अप्पन कोशिश से कउनों उचाई तक जा सके हैं।
मनन और चिंतन से भरपूर उनके निबंध मगही के रूप-रंग के दर्शन कारते हैं। शांति सद्भावना के साथ बिहार के समन्वयकारी विकास के सपने को सच करने के प्रयास के तहत उन्होंने सोए को जगाया, गिरे को उठाया, भयभीत को भयमुक्त बनाया। साहस के साथ अंधविश्वासों से मुक्ति का रास्ता बनाया और हतोत्साहित को उत्साहित किया। उन्होंने जड़ता में पड़े बिहार का नवनिर्माण किया। जागने वाले की जय होती है, यह संदेश दिया।
श्री बाबू बिहार के ऐसे प्रथम मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने कर्म और वचन के प्रति प्रतिबद्धता का निर्वहन किया था। उनके निधन के बाद उनके द्वारा प्रतिपादित कई मापदंड और मान्यताएँ बिखर गई औरों की बात छोड़ें उनके उत्तराधिकारियों ने सिद्धांतों का हनन क्षनिक लाभ के लिए करना प्रारंभ किया। यही कारण था कि कालांतर में 'गुण' के स्थान 'गोत्र' को महत्व मिलने लगा और भ्रष्टाचार पनपने लगा। श्री बाबू ने भ्रष्टाचार रहित स्वच्छ और समृद्धिशाली बिहार की जो कल्पना की थी। अतः भय, भूख, मुक्त बिहार के लिए श्री बाबू के सपने को साकार करने की आवश्यकता है।
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