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Nawada News : सबों के लिए सस्ता और सुलभ हो अन्न, लेकिन मुफ्तखोरी की रेवड़ी सही नहीं : रत्नाकर

   


सबों के लिए सस्ता और सुलभ हो अन्न, लेकिन मुफ्तखोरी की रेवड़ी सही नहीं : रत्नाकर

नवादा लाइव नेटवर्क।

अन्न अन्न का मंत्र जपने भर से अन्न नहीं पैदा हो सकता है, अन्न पुरुषार्थ से पैदा होता है।

कभी देश में कम अन्न पैदा होता था, तब पेट भरने के लिए विदेशों से आयात किया जाता था। लेकिन आजादी के दो दशकों के बीच सरकार के ईमानदार प्रयास के कारण उन्नत बीजों के पैदा करने, रसायनिक उर्वरकों का उपयोग करने और नहर ,बांध ,नलकूप लगाने के बाद किसानों के साहस और कठिन परिश्रम के कारण अन्न के पैदावार में वृद्धि हुई। लेकिन बिचौलिया वर्ग के प्रभाव के कारण जब खेत से खलिहान और घर आता तो अन्न का दाम कम होता और वही अन्न किसानों के घर से बाजार जाता तब दाम बढ़ जाता था।

1964_65 में तत्कालीन सरकार ने अन्न के थोक व्यापार अपने अधीन कर लिया। तब से देश में अन्न के दाम स्थिर रहने लगा। कृषि पैदावार बढ़ने से गांव की जीवन शैली में बड़ा परिवर्तन आया। जीवन स्तर में बदलाव आया। जब अन्न का थोक व्यापार सरकार ने अपने हथनों में लिया तो उसमें पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से इस विषय पर विश्वविद्यालय स्तर पर बहस या डिबेट का आयोजन किया गया था। विषय था अन्न का थोक व्यापार और बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्या न्याय संगत है? यह संयोग है कि पटना विश्वविद्यालय के सभा भवन में आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिता में मैं भी भागीदार था और हमने गल्ले के थोक व्यापार और बैंकों के राष्ट्रीयकरण को क्रांतिकारी कदम बताया था। 

अगर सरकार गल्ला का थोक व्यापार अपने पास नहीं रखती तो देश के बिचौलिया वर्ग उपभोक्ताओं को संकट में डाल देती। कभी कमजोर उपभोक्ताओं के लिए सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान चलती थी। 1966_67 में अकाल व सुखाड़ के समय इन दुकानों ने महत्वपूर्ण काम किया था। 

कोरोना महामारी काल में भारत सरकार ने कमजोर उपभोक्ताओं के बीच मुफ्त अनाज का वितरण प्रारंभ किया।  उपभोक्ताओं में कौन पात्र और कौन अपात्र यह विवादित विषय है। करण सरकारी अधिकारी या कर्मचारी बहुतों पात्र को अपात्र और अपात्र को पात्र घोषित करते रहे हैं। यह प्रश्न उठता है कोरोना बीमारी के बाद भी इस योजना को जारी रखना क्या रेवड़ी बांटने जैसा काम है। कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि मुफ्त की भोजन सरकार को दिवालिया बनने की स्थिति में ला सकती है। 

अनाज सबों के लिए आवश्यक है। देश के 80 प्रतिशत किसान तीन एकड़ से कम जोत के मालिक हैं। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने माना था कि 5 एकड़ से कम जोत के किसान जो खेती करते हैं वह अलाभकर हैं। कम जोत के किसान परिवार का गुजारा इससे नहीं हो सकता है। यह विडंबना पूर्ण सच्चाई है कि देश में बड़े वर्ग को मुफ्तखोर सरकार बना रही है। 

जिस वर्ग को सस्ता और मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। उसी वर्ग को इंदिरा आवास और योजनाओं के तहत भवन के लिए भी फंड दिया जा रहा है। मुफ्त में अन्न वस्त्र और भवन पाने वालों में 30% ऐसे लोग हैं, जिन लोगों ने एक की जगह तीन इंदिरा आवास, वृद्धा पेंशन और किसानों के नाम पर जो भारत सरकार साल में ₹6000 प्रदान कर रही है का लाभ ले रहे हैं। 

मुफ्त खोरी का प्रचलन बढ़ते जाने के कारण कार्य क्षमता घटता जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्र के बुद्धिजीवी मांनते हैं कि इन योजनाओं के कारण कृषि कार्य के लिए मजदूरों का अभाव हो गया है। बिना श्रम के ही सब कुछ मिल जाए तो आखिर परिश्रम करना कौन चाहेगा। 

एक तरफ मुफ्त अन्न योजना और दूसरी तरफ मात्र एक साल के अंदर बाजार में 14 सौ रुपए क्विंटल गेहूं और 18 सौ रुपए चावल बाजार में उपलब्ध था। लेकिन आज 28 सौ रुपया क्विंटल गेहूं और चावल 36 सौ रुपए क्विंटल  उपभोक्ताओं को परेशानी  के साथ खरीदना पड़ रहा है। इस ढंग से आम उपभोक्ता परेशान होते हैं। एक साल के अंदर दामों में इस ढग का उछाल कभी नही देखा गया है। कभी क्यूबा में फेडरल कैस्ट्रो राष्ट्रपति थे। उन्होंने देश में राइस रेगुलेशन के तहत सबके लिए सस्ता और सुलभ भोज्य पदार्थ खासकर अन्न को सस्ता कर दिया था। क्योंकि अन्न सबके लिए जरूरी है।

 अन्न सबके लिए जरूरी है तो यह सभी के लिए सस्ता और सुलभ होना चाहिए। इसमें विभाजन को रेबड़ी बांटना ही माना जा रहा है। 

सांस्कृतिक इतिहास के जानकार मानते हैं कि कभी क्षत्रिय नरेशो के पास शासन हुआ करता था। तब नरेश या राजा मनमानी करने लग गए थे। समय के प्रबुद्ध वर्ग खासकर ब्राह्मण वर्ग के लोग क्षत्रिय नरेश के गलत कामों का प्रतिकार करते थे। क्षत्रिय नरेश ने माना कि समाज के जागरूक वर्ग ब्राह्मण ही हैं। इस वर्ग को आदर देकर ,अन्न देकर, भवन देकर प्रसन्न किया जाए। इस धन के लाभ प्राप्त ब्राह्मणों ने माना कि नरेशो का प्रतिकार व्यर्थ है और ब्राह्मणों का बड़ा तबका राजकोष से लाभ प्राप्त करने में लग गया। बिना काम के सब होने लगा तो यह वर्ग आराम का जीवन जीने लगा। बड़ी संख्या में कर्म हीन हो गए। स्थिति आई की इस वर्ग में बड़ी संख्या में भिखारी बन गए। जिनमें प्रतिकार की क्षमता भी समाप्त हो गई है।

आलेख

रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर

Mo.+918544027230















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