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Pitripaksha@Gaya : गया श्राद्ध और पिंड दान...

 


गया श्राद्ध और पिंड दान...

नवादा लाइव नेटवर्क।

सभी धर्मों में मृत्यु के बाद जीवन की संभावनाएं आंकी गयी हैं, और माना गया है कि आत्मा अमर है। आत्मा की शांति के लिए अनुष्ठान करने की परम्परा है, हिन्दू सनातन मतवादी आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध एवं पिंडदान करते हैं।

 हिन्दुओं की मान्यता है कि व्यक्तियों, प्राणियों के स्वर्गवास हो जाने के बाद उनकी आत्मा सूक्ष्म शरीर के रूप में बाहर जाते समय या तो प्रकाशपुंज में मिलती है या अपने किसी प्रियजन से मृतात्मा का मिलन होता है। वह प्रकाशपुंज उस आत्मा को परलोक में कार्य करने को निर्देशित करता है।

 सांसारिक मोह माया में जकड़ा इंसान का इस सूक्ष्म संसार में प्रवेश मुश्किल से हो पाता है। तब उसका सूक्ष्म शरीर भटकने लगता है और फिर नयी योनियों में उसका अवतरण होता है। इन योनियों में भूतप्रेत की योनि भी हो सकती है।

सनातन हिन्दू-धर्म की मान्यता है कि आत्मा की शांति के लिए पूर्वजों को श्राद्ध तथा तर्पण किया जाता है। गया में पिंडदान करने से सात पीढ़ी और सौ कुल के पूर्वजों की भटकती आत्मा को शांति मिलती है। उन्हें जीवनमरण से छुटकारा मिल जाता है। इसी उद्देश्य से गया में पितृपक्ष के अवसर पर पिण्डदान की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है।

वायु पुराण के गया महात्म्य में गया को पवित्र स्थल माना गया है। गरुड़ पुराण में गया श्राद्ध को महत्वपूर्ण माना गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार गया और खासकर विष्णु पद पवित्र तीर्थ स्थल हैं। गया को गयाजी कहकर हिन्दू प्रतिष्ठित करते हैं।

मनु के अनुसार पितर देवों के जन्मदाता हैं। याज्ञवल्क्य के मत से पितर और देवता एक हैं। हरिवंश पुराण की कथा के अनुसार पितर देवताओं से उत्पन्न हुए। भगवान यास्क ने समन्वयात्मक तर्क उपस्थित करते हुए लिखा है कि आग्नेय प्राण रूप देवता और सौम्य प्राण रूप पितर में जन्य जनक भाव है, अर्थात दोनों एक दूसरे के उत्पादक है और दोनों एक दूसरे से उत्पन्न हुए हैं।

 इस प्रकार की स्थिति पाँच भौतिक तत्वों में भी देखी जाती है। जैसे अग्नि से जलतत्व उत्पन्न होता है प्रचंड ग्रीष्म में अग्नि की अधिकता होने पर वह जल रूप में वर्षा बनकर नीचे गिर जाता है और वही जल फिर वाष्प रूप होकर उड़ जाता है, तो अग्नि तत्व जल तत्व का उत्पादक भी हुआ और उससे उत्पन्न होने वाला भी सिद्ध हुआ।

 इसी प्रकार कहीं वायु से जल बनता है और जल पुनः वायु रूप हो जाता है। इस प्रकार भौतिक तत्वों में जो प्रत्यक्ष जन्य जनक भाव की स्थिति है, वहीं स्थिति देव और पितर में भी है। पितृ प्राण बनकर देव प्राण में ही अनुप्रविष्ट हो जाते हैं। 

आज भी श्राद्ध के अवसर पर बारहवें दिन अर्थात द्वादशाह को पिंड छेदन या सपिण्डन श्राद्ध का जो कार्य होता है, उसमें पितृपिंड को उसके पूर्वज रूप देव पिंड से मिलाया जाता है इसे लोक भाषा में पितरमिलौनी भी कहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि देव और पितर एक एकयेकता है याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार वसु, रुद्र और आदित्य देवता ही पितर हैं वसुरुद्रादितिसुताः पितरः श्राद्ध देवताः ।

पितरों की देवलोक या ब्रह्मलोक की प्राप्ति वस्तुतः मोक्ष प्राप्ति ही है। ब्रह्मलोक को प्राप्त पितरों की पुनरावृत्ति या पुनरागमन नहीं होता, अर्थात वे संसार चक्र के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए पितृपक्ष का बहुत महत्व है।

 पितृपक्ष में गया जाकर वहां की प्रेतशिला पर पूज्य पितरों को पिण्डदान करने से उन्हें सदा के लिए भवबाधा से मुक्ति मिल जाती है। गया में एक बार जो अपने पितरों को पिंडदान करता है, उसे फिर उनके लिए कभी पिंडदान नहीं करना पड़ता है।

गया के संदर्भ में नौवीं शताब्दी में शंकराचार्य ने पवित्र तीर्थ स्थल कहकर गया को सम्मानित किया है। विशेषकर भारत के पाँच श्राद्ध कार्य सम्पन्न कराने के क्षेत्रों में गया का स्थान महत्वपूर्ण बताया है। निरुक्त के अनुसार समारोहित विष्णु पद गया कोटिसि। शंकराचार्य ने श्राद्ध करने वाले जिन पाँच पवित्र स्थानों के नाम दिए हैं उनमें गया भी है।

भागवत पुराण के अनुसार त्रेता युग के के धनी प्रतापी गयासुर बाहुबल नामक राजा ने गया नामक नगर बसाया। गयासुर को ब्राहमणों के कई अनुष्ठान पंसद नहीं थे। वायु पुराण के अनुसार मानवीय धर्म के प्रति आस्थावान राजा गयासुर वैष्णव मतवाद का घोर विरोधी था। यज्ञ, होम आदि कर्मकांड उसे पसंद नहीं थे।

वैष्णव मतवादी देवताओं ने गयासुर को सही रास्ते पर लाने का असफल प्रयास किया। इसी क्रम में देवताओं ने शारीरिक शक्ति का भी प्रयोग किया। इस बीच गयासुर और देवताओं के बीच समझौता हुआ, जिसके अनुसार गयासुर के शरीर पर एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया जाना तय हुआ। यज्ञ आरम्भ होते ही गयासुर का शरीर भूकंप सा काँपने लगा, सभी देवता शरीर को शांत या स्थिर करने में असमर्थ हो गये। तब भगवान विष्णु को खुद आना पड़ा।

 आज जहाँ विष्णुपद मंदिर है, वह वही स्थल है जहाँ पर भगवान विष्णु ने अपने पैर (पद) गयासुर के शरीर पर रखकर उसके कांपते शरीर को शांत किया था। मरते-मरते गयासुर ने भगवान विष्णु से वरदान प्राप्त कर लिया कि मेरा शरीर पंचकोश के अर्न्तगत है, वह सर्वथा पुण्यमय क्षेत्र माना जाय तथा यहाँ सभी पितरों का वास रहे। गयासुर ने यह भी वरदान मांगा कि सदा उस पर एक पिंडदान होता रहे। इस कारण इस पंचकोश में एक पिंडदान प्रत्येक दिन होता है।

 पिंडदान के लिए गया में विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की वेदियाँ हैं, जहाँ भक्तजन अपने पूर्वजों को पिंडदान तथा तर्पण श्रद्धापूर्वक प्रदान करते हैं। पिंड वेदियों के सम्बंध में कहा जाता है कि पिंड वेदियों की संख्या 365 थी और बाहर के जो भी तीर्थ यात्री यहाँ पिंडदान करने आते थे वे एक वर्ष तक रहकर यहाँ की प्रत्येक पिंडवेदी पर श्राद्ध करते थे। अब अधिकांश वेदियाँ लुप्त हो गयी हैं। अब मात्र 44 पिंडवेदियाँ ही शेष बची हुई हैं, जहाँ तीर्थयात्री श्राद्ध कर्म करते हैं। 

पिंडदान के लिए पितृपक्ष के 15 दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण माने गये हैं किन्तु भाग दौड़ की जिन्दगी के कारण अनेक लोग मात्र दो तीन दिन ही रहकर अपना श्राद्ध कर्म पूरा कर लेते हैं। अब तीन वेदियों को ही महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इन तीन वेदियों में एक विष्णुपद, दूसरा फल्गु और तीसरा अक्षयवट है। गया श्राद्ध कर्म करने के साथ पुनपुन नदी के किनारे पिंडदान दिया जाता है विभिन्न पुराणों में कीकट देश या मगध के पवित्र स्थलों में पुनपुन नदी भी है।

पितृपक्ष का पन्द्रह दिन गयाजी के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है। भाद्र पक्ष की चतुर्दशी जिसे अनन्त चतुर्दशी भी कहा जाता है के दिन से पितृपक्ष शुरू होता है । पितृपक्ष की अवधि महालया के नाम से भी जाना जाता है। महालया का आरम्भ भाद्र पूर्णिमा से ही हो जाता है और अपने पितरों को जल तर्पण करने का कार्य उसी दिन प्रारम्भ हो जाता है।

एक रोचक पौराणिक कथा है कि राम लक्ष्मण और सीता जो अपने स्वर्गवासी पिता की आत्मा की शांति के लिए गया में पिंडदान के लिए पधारे थे। राम लक्ष्मण पिंडदान की सामग्री लाने सीता को अकेली फल्गु नदी के किनारे छोड़ गये। कहा जाता है कि स्वर्गवासी राजा दशरथ को वहाँ उपस्थित देख सीता जी ने पास खड़े ब्राह्मणों से सलाह ली और ब्राह्मणों के निर्देशन में पिंडदान सम्पन्न किया। चावल और जौ के अभाव में फल्गु नदी की बालू से ही सीता जी ने पिंडदान किया। राम लक्ष्मण पिंडदान की सामग्री लेकर जब वापस आये तब सीता जी ने पिंडदान सम्पन्न होने की सूचना दी। राम लक्ष्मण को भारी आश्चर्य हुआ। तब सीता जी ने पास खड़े ब्राह्मण, नदी, बालू और गाय को साक्षी बनाकर इसकी पुष्टि चाही।सामने उपस्थित चारों ने राम लक्ष्मण का मुँह देखकर नकारात्मक उत्तर दिया अर्थात पिंड नहीं दिया गया। सीता जी ने क्रोधित होकर शाप दिया कि ब्राह्मणों को अब आगे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, भिखारी की तरह हाथ पसारेंगे, फल्गु नदी में शुद्ध पवित्र जल प्रवाहित नहीं होगा। और उसके बालू का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान में काम नहीं लिया जायेगा और गाय विष्ठा खायेगी।

गया श्राद्ध एवं पिंडदान के लिए गयवाल पंडे विशेष रूप से मान्य हैं। गयवाल पंडे कभी महत्वपूर्ण थे और गयवाल भागवत की रचना की थी । गयवाली भागवत में मगध की बेटी रुक्मिनी के सामने भगवान कृष्ण को बौना दर्शाया गया है। मगध की संस्कृति खासकर गया की संस्कृति एवं धर्म को बचाये रखने में गयवाल पंडे स्मरण किये जाते हैं।

इस गयवाल पंडे को चौदह सईयाँ कहा जाता है अर्थात पहले इनकी संख्या 1400 थी, लेकिन अब ये मात्र साठ घर ही रह गये हैं। येन गयवाल पंडे दक्षिण गया या अंदर गया में निवास करते हैं।

गया में पिंडदान के सम्बंध में विभिन्न पुराणों में उल्लेख किया गया है। पुराणों में कहा गया है कि गया श्राद्ध करने मात्र से गदाधर की अनुग्रह से पितर भवसागर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। गया में तुलसी मंजरी से विष्णुपद का पूजन करें और यथाक्रम पिंडदान करें, गाय के मस्तक भाग में शमी के पत्तों के बराबर पिंडदान करने से उसकी सात पीढ़ी और सौ कुल का उद्धार हो जाता है, जो गया में पिंडदान करते हैं उनका जन्म सफल है और उसके पितर प्रसन्न होते हैं।


रामरतन प्रसाद सिंह "रत्नाकर"

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