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Labour Day Special : 21 वीं शताब्दी में मजदूर मौन है : रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर



21 वीं शताब्दी में मजदूर मौन है : रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर 

नवादा लाइव नेटवर्क।

18वीं और 19वीं शताब्दी में संसार में कई ढंग के परिवर्तन हुए और इन्ही के कारण कई ढंग के वर्ग विभाजन भी हुआ। इन वर्गों में से एक तबका मजदूरों का है, जो संसार भर के कल-कारखानों और खदानों में काम करता है, उसे काम के आधार पर उस ढंग की सुविधा प्राप्त नहीं हो रही है और मजदूरों की अवाज सूनी नहीं जा रही है। इस विकट परिस्थिति में संसार भर में हलचल पैदा हुआ। 

इस संदर्भ में महान क्रांतिकारी कार्ल मार्क्स ने दास कैपिटल नाम की पुस्तक लिखी और एक नारा दिया, “दुनिया के मजदूरों एक हो, तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पाने के लिए बहुत कुछ है”। इसके लिए तुम्हें एकताबद्ध होना है और सतत संघर्ष का रास्ता अपनाना है। इसका व्यापक प्रभाव वैसे देशों में सबसे अधिक हुआ जहां कल कारखाने अधिक थे।

 1889 में पेरिस में इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांफ्रेंस के समय यह निश्चित किया गया कि मजदूरों के लिए भी एक दिवस हो और र्निणय लिया गया कि 1 मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए। आज संसार के 80 देशों में मजदूर दिवस का आयोजन होता है। खासकर मुंबई में 1923 को मजदूर दिवस का आयोजन हुआ था जिसमें बड़ी संख्या में मुंबई और आसपास के कल-कारखानों में काम करने वाले मजदूरों ने भाग लिया था, तभी से भारत में भी 1 मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने का प्रचलन है।



1893 में महात्मा गांधी अफ्रीका गए और वहां काम करने वाले मजदूरों की दुखद स्थिति को जाना। इस संदर्भ में व्यास सम्मान से सम्मानित गिरिराज किशोर ने महात्मा गांधी को पहला गिरमिटिया बैरिस्टर के रूप में रेखांकित करते हुए लिखा है कि “...व्यवसायी पर्दे के पीछे थे, हालांकि वहां के गोरों के नजर में सब कूली थे। कुलियों में से ही वह भी एक कूली था– गांधी-द-कूली बैरिस्टर...”। 

रंग भेद निति की आड़ में दक्षिण अफ्रीका में काम करने वाले भारतीय मजदूरों के आर्थिक - सामाजिक शोषण के खिलाफ युवा मोहनदास करमचंद गांधी के मन में तुफान उठा और उन्होंने प्रतिकार बैरिस्टर के रूप में करना प्रारंभ कर दिया। गोरे जब दुसरे देशों में जाते थे तब वे अपने सपनों को धरती पर स्थापित करने का प्रयास करते थे। उनकी चाहत होती थी कि उस स्थान और वहाँ के लोगों को गुलाम बनाकर रखा जाए। दक्षिण अफ्रीका के बड़े हिस्से की उपजाऊ जमीन की पहचान 17 वीं - 18वीं शताब्दी में गोरों ने कर लिया था।

इस संदर्भ में गिरिराज किशोर उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' में लिखते हैं, “... इवान्स अपनी बात छोड़कर उस पर चालू हो गया। उनके खिलाफ जहर उगलने लगा। श्वेत मजदूर क्या करेंगे? वे शीतोष्ण फसलों के बारे में क्या जानते हैं? यह कोई सेब या बैरी उगाना है? आपको मालूम है एक गोरे मजदूर पर कितना खर्च आता है? आस्ट्रेलिया में बीस पाउंड प्रति वर्ष पगार और दो वक्त खाना अलग दिया जाता है। फिर रुककर बोला - मारीशस में एक काले मजदूर पर आने वाला खर्च कुछ नहीं है।” 

 मजदूर जगत को जगाने में कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स और महात्मा गाँधी का योगदान अतुलनीय है। इसलिए इन तीनों को नमन है। भारत में बड़ी संख्या में असंगठित मजदूर हैं जो कृषि कार्य से जुड़े हुए हैं, चूंकि कृषि कार्य अलाभकारी हो गया है और जोतो के टुकड़े हो जाने के कारण संगठित कृषि कार्य बाधित हुआ है। जाने अनजाने सरकारों के द्वारा जो रेवड़ी बांटी जाती है, उससे कृषि क्षेत्र में मजदूरों का अभाव होता जा रहा है और मजदूर बड़ी संख्या में शहरों के तरफ पलायन कर जाते हैं। शहरों में गृह, सड़क और पुलों के निर्माण में लग रहे हैं। इसी ढंग से ईंट भट्ठा में बड़ी संख्या में मजदूर लगे हुए हैं और उनका शोषण हो रहा है। और वे नहीं तो घर में रह पाते ना ही घाट पर रह पाते। 

अब संयुक्त परिवार विभाजन होने के कारण जो मजदूर संघर्ष कर सकते थे वे परिस्थितिवश मौन है। इस कारण भारत में लगभग 100 वर्षों से 1 मई मजदूर दिवस का जो विषय था कि एकताबद्ध होकर संघर्ष करो, यह गौण हो गया है।

राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर
 मोबाइल - 8544027230



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