Header Ads

Breaking News

Yaatra Sansmaran : दक्षिण भारत का श्री रंगनाथ मंदिर भव्यता एवं कलात्मकता का मणिकांचन संयोग : राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर



 Yaatra Sansmaran : दक्षिण भारत का श्री रंगनाथ मंदिर भव्यता एवं कलात्मकता का मणिकांचन संयोग : राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर

नवादा लाइव नेटवर्क।

दक्षिण भारत का वर्तमान तमिलनाडु प्रदेश में प्रवाहित कावेरी नदी उत्तर भारत के गंगा के समान पवित्र एवं शुभ है। कावेरी नदी के तट के पास चतुर्भुज भगवान विष्णु का मन्दिर श्री रंगनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान तिरुच्ची महानगर रेलवे स्टेशन से सात किलोमीटर की दूरी पर कावेरी और कोल्लोडम नदियों के बीच 156 एकड़ क्षेत्रफल में फैला है। 

दक्षिण भारत में आकर्षक ढंग से शोभायमान एवं अलंकृत बहुमंजिली रचना को गोपुर कहा जाता है, इस भव्य मंदिर में 21 वर्ण गोपुर हैं। सभी गोपुर अर्थात प्रवेश द्वार आकर्षक ढंग से पत्थरों को तराशकर निर्मित किये गये हैं। दक्षिण दिशा का राजगोपुरम 236 फुट ऊँचा है। पत्थर पर पत्थर रखकर निर्मित श्री रंगम के सभी तोरणद्वार स्थापत्य की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं। 

मन्दिर के निर्माण के सम्बंध में स्पष्ट ऐतिहासिक तथ्यों का अभाव है लेकिन सांस्कृतिक इतिहास के अनुसार यह मंदिर त्रेतायुग का है। कथा के अनुसार श्री रंगनाथ स्वामी का विमान ब्रह्मदेव के तप से बैकुण्ठ क्षीर सागर से निकला था। हजारों वर्षों तक ब्रह्मदेव ने पूजा की थी। बाद में सूर्यदेव को श्री रंगनाथ की नित्य पूजा के लिए नियुक्त किया। हजारों वर्षों के बाद सूर्यकुण्ड में उत्पन्न इक्ष्वाकु राजा ने इस विमान को अयोध्या ले जाकर पूजापाठ किया जाने लगा था।

 अयोध्या में राजा दशरथ ने पुत्र कामेष्ठी यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में भाग लेने देश-विदेश के राजा अयोध्या पधारे थे, उनमें तमिल क्षेत्र के चोल राजा धर्मवर्मन भी पधारे थे। यज्ञ समाप्त होने के बाद राजा दशरथ के भव्य महल का दर्शन चोल राजा धर्मवर्मन ने किया। भ्रमण के क्रम में राजा ने श्री रंगनाथ का अद्भुत आकर्षक मूर्ति को देखा और मन में भाव आया कि यह मूर्ति अपने देश ले चलें। राजा ने महाराज दशरथ के सामने यह प्रस्ताव रखा। लेकिन राजा ने मूर्ति प्रदान करने में असमर्थता जतायी। उदास राजा वापस अपने देश में चन्द्र पुस्कारिणी के पास श्री रंगनाथ की याद में तप करने लगे। 

दशरथ राजा के ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम लंका विजय के बाद सीता देवी के साथ अयोध्या वापस आये। श्री राम के मन पर विभीषण का प्रभाव हुआ और अति प्रसन्न होकर श्रीराम ने अपने पूजित श्री रंगनाथ मूर्ति को विभीषण को प्रदान किया। विभीषण प्रसन्न होकर श्री रंगनाथ की मूर्ति लंका देश ले जाने के क्रम में कावेरी नदी के पास चन्द्र पुस्कारिणी के पास कर्म अनुष्ठानों की पूर्ति के क्रम में रख दिया और जब वापस आकर मूर्ति उठाने लगे तो मूर्ति नहीं उठ सकी। 

इसी बीच तप में लीन चोल राजा धर्मवर्मन की दृष्टि अचानक पड़ी तो वह आनन्द विभोर होकर नाचने लगे और समझे कि श्री रंगनाथ जी अपने राज में पधारे हैं। भावुक राजा बार-बार प्रणाम करने लगे। कुछ देर के बाद विभीषण ने पुनः श्री रंगनाथ मूर्ति को उठाने का प्रयास किया लेकिन संभव नहीं हो सका। इस बीच परेशान विभीषण को चोल राजा धर्मवर्मन ने सांत्वना दी कि श्री रंगनाथ जी ने कावेरी के तट पर ही आसीन होने की अपनी इच्छा प्रकट की है। विभीषण को सांत्वना के साथ वचन दिया कि हम हमेशा श्री लंका की तरफ दक्षिण की ओर दर्शन देंगे। 

चोल राजा धर्मवर्मन ने विभीषण की प्रसन्नता के लिए मन्दिर का द्वार दक्षिण दिशा में रखा, जो वैष्णव परंपरा से अलग है। मान्यता है कि भक्तों के लिए सदा देवों ने परम्परा से अलग होकर वरदान प्रदान की है। श्री रंगनाथ मंदिर का दक्षिण दिशा का द्वार संभव है कि संसार का अद्भुत सबसे ऊँचा द्वार है। द्वार कलात्मक ढंग से निर्मित है। अन्दर जाने के लिए 40 फीट का बड़ा दरवाजा है। अन्दर प्रवेश करने पर कार्तिक गोपुरम के पास गरुड़ मंडप का दर्शन होता है। इस गरुड़ मंडप में कुल 212 खम्भे हैं। इसके आगे पश्चिम में कई संनति और उत्तर दिशा में परमगढ़ प्रवेश द्वार है। वैकुण्ठ एकादशी पर्व पर ही यह परमपद प्रवेश द्वार खुलता है, इसके पास ही चन्द्रपुस्करिणी है। दक्षिणी पूर्वी छोर पर सूर्य पुस्करिणी आदि है। पास में स्वर्ण ध्वज और बलिपीठ भी बने हुए हैं। 

अंत में दर्शक द्वितीय प्रकार के प्रथम प्रकार को दक्षिणी तरफ के नाली केटान गोपुरम के जरिये प्रवेश करते हैं। इस स्थान जिसे प्राकार कहते हैं में यज्ञशाला, तोण्डेमान मंडप तथा पूर्वी दिशा में और दो मंडप भी हैं। इस मंदिर के मुख्य मूलस्थान रोलाकार में दक्षिण दरवाजा है, जिसके पास पावन गर्भगृह में श्री रंगनाथ जी आदीशेषन सर्प पर दायें तरफ झुक लेटकर दर्शन देते है। काले पत्थर से निर्मित भगवान विष्णु की मूर्ति का मुकुट सुनहले रंग का है। शेषशया पर विराजमान चतुर्भुज विष्णु को ही रंगनाथ के नाम से आस-पास के लोग जानते है।

 श्री रंगनाथ के पद कमलों के पास विभीषण की मूर्ति है और पास में लक्ष्मी विराजमान हैं। आगे दरवाजे के निकट उत्सव मूर्ति श्रीदेवी भूदेवी अनुग्रह कर रहे हैं। श्री रंगनाथ मंदिर के ऊपर सुनहले रंग का स्वर्ण विमान है जिसका दर्शन उत्तर एवं पूर्व दिशा से संभव होता है। 

कावेरी और कोल्लोडम नदियों के बीच श्री रंगम के नाम से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल के आस-पास कई मंदिर और दर्शनीय स्थान हैं। श्री रंगम नदियों के बीच बसे रहने के कारण प्राकृतिक सौंदर्य स्थली भी है। वैष्णव परम्परा के प्रसिद्ध मन्दिर के अलावा और भी कई देवी और देवताओं के मन्दिर और मूर्ति श्री रंगम शहर के आस-पास हैं। 

7वीं से 10वीं शताब्दी का काल वैष्णव विचारधारा का उत्तर और दक्षिण भारत तक फैलने का काल माना जाता है। आचार्य परम्परा में प्रथम नाम नाथमुनि का लिया जाता है। उन्हें अंतिम आलवर मधुर कवि का शिष्य माना जाता है। उन्होंने आलवरों के भक्तिगीतों को व्यवस्थित किया। न्यायतत्व की रचना का श्रेय इन्हें दिया गया है, इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रेम मार्ग के दार्शनिक औचित्य का प्रतिपादन किया। 

परम्परा के अनुसार नाथमुनि श्री रंगम मन्दिर के श्री रंगनाथ मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे। नाथमुनि के कारण एक बार फिर श्री रंगम का भव्य मंदिर वैष्णव भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र हो गया। आचार्य परम्परा में रामानुज का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। 10वीं शताब्दी के आस-पास श्री रंगम के श्री रंगनाथ मंदिर में निवास करने वाले गृहस्थ आचार्य रामानुज ने वैष्णव. भक्ति में समन्वय के भाव भरने का महान कार्य किया था। रामानुज के अनुसार ब्रहम चिन्मय आत्मा और जड़ प्रकृति दोनों में विद्यमान है किन्तु वह उन दोनों से विशिष्ट है। जो सम्बंध आत्मा का शरीर से है वही सम्बंध ईश्वर का आत्मा तथा प्रकृति से है, जिसे हम ब्रह्म कहते हैं वह ईश्वर से भिन्न नहीं है। रामानुज के मत से आत्मा, प्रकृति और ईश्वर तीनों की समस्टि का नाम ही ब्रह्म है। रामानुज ने श्री रंगम के मालीकोट मंदिर में अन्त्यजों को पूजा अधिकार दिया था, इस प्रकार श्रीरंगम के श्री रंगनाथ मंदिर का महत्व मध्ययुगीन भारत में सर्वाधिक रहा है। दक्षिण भारत का श्री रंगनाथ मंदिर भव्यता एवं कलात्मकता का मणिकांचन संयोग है।

No comments